भारतीय शिक्षा प्रणाली - प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य, विशेषताएं , और व्यवस्थापन

भारतीय शिक्षा प्रणाली - प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य, विशेषताएं , और व्यवस्थापन 


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प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य


1. धार्मिक भावना का जागरण

2. चरित्र निर्माण

4. समाज कल्याण की भावना जाग्रत करना

5. भारतीय संस्कृति का प्रसार

3. व्यक्तित्व का विकास

प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ


भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली की विशेषता यह थी कि बालक का 6-7 वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार कर दिया जाता था। यज्ञोपवीत् हो जाने पर बालक 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मगर्ग धर्म का पालन करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करता था।

विद्यालय 'गुरुकुल', 'आचार्यकुल', गुरुगृह इत्यादि नामों से जाने जाते थे। शिक्षक को 'आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को 'ब्रह्मचारी' व्रतधारी', 'अंतेवासी', 'आचार्यकुल वासी' कहा जाता था। विद्यार्थियों से वेदमंत्र कंठस्थ करवाये जाते थे।

यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले होता, उद्‌गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा को आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे।

ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देने की प्रथा थीं।

शिक्षा के विषयों में व्याकरण, गणित, ज्योतिष, भाषा, इतिहास, धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र, कृषि, न्याय, तर्क, चित्र, युद्धकला जैसे विषयों के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक मंत्रों को याद करना, पिंगल के नियमों को याद करना सिखाया जाता था।

वैदिक काल में त्री शिक्षा भी शिक्षा प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता मानी गई। स्त्रियों को लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जाती थी।


प्राचीन शिक्षा व्यवस्थापना



1. ऋग्वैदिक काल में शिक्षा व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए शिक्षा को बड़ा महत्व दिया जाता था। ऋग्वेद के सातवें मण्डल में शिक्षा की चर्चा है। विद्यार्थी के अर्थ में 'ब्रह्मचारी' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 109 वें सूक्त में मिलता है।

ऋग्वेद काल में दो प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ मौजूद थीं। प्रथम, आश्रम में किसी विशिष्ट गुरु के साथ रहकर तथा द्वितीय, ब्राह्मण संघ के रूप में जिसमें विभिन्न प्रकरणों पर परिचर्चाएं होती थी।

2. उत्तरवैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में लेखन कला की उन्नति हुई। इस काल में शिक्षा पर बड़ा बल दिया गया। इस युग की शिक्षा व्यवस्था
की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थी-

1. अथर्ववेद में शिक्षा का उद्देश्य 'श्रद्धा', 'मेधा', 'प्रजा', 'धन', 'आयु' तथा 'अमरत्व' बताया गया है।

2. 'बृहदारण्यक उपनिषद' में उल्लेखित परिषदें वास्तव में विद्यापीठ थे जहाँ प्रसिद्ध एवं विद्वान आचार्यों के मार्गदर्शन में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने दूर-दूर से आते थे।

3. सूत्र काल में शिक्षा व्यवस्था


धर्म शास्त्र सम्बन्धी नियमों का सैद्धान्तिक रूप से वर्गीकरण तथा उसकी शिक्षा इस युग की प्रमुख देन थी।

सूत्र काल की शिक्षा पद्धति के संदर्भ कौटिल्य के अर्थशाख में दिखते हैं। इसमें शिक्षा के प्रमुख विषय है- त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता तथा दण्ड नीति।

इनके अर्थ इस प्रकार हैं-

• त्रयी तीनों वेदों की शिक्षा

• आन्वीक्षिकी न्याय शास्त्र

• वार्ता - कृषि

दण्डनीति राजनीतिशास्त्र

4. गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल में शिक्षा व्यवस्था

गुप्त काल में ब्राह्मण शिक्षा पद्धति के विषय-वेद, वेदांग, छंद, व्याकरण, निरुक्त, कल्प, ज्योतिष तथा औद्योगिक शिक्षा तथा गुप्तोत्तर काल में छह दर्शन (षड्दर्शन) की शिक्षा दी जाती थी। गुप्त काल में ज्योतिष का बहुत विकास हुआ।

वराहमिहिर द्वारा रचित 'वृहत्संहिता' में वर्णन है कि ज्योतिष, वास्तु तथा तक्षण कला प्रमुख विषय थे।

वराहमिहिर कृत 'पंच सिद्धान्तिका' में पाँच प्रचलित धाराओं का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। यह है- पैतामह, वासिष्ठ, सौर, पौलिष और रोमक।

ज्योतिष का गहन सम्बन्ध गणित से है अतः गणित भी शिक्षा का अनिवार्य अंग था। आर्यभट्ट के 'आर्यभटीयम' से इसकी
पुष्टि होती है।

प्रमुख ब्राह्मण शिक्षण केन्द्र

ब्राह्मण शिक्षण केन्द्र अनेक प्रकार के थे। इनमें प्रमुख हैं-

1. ब्राह्मण गृहस्थों द्वारा स्थापित केन्द्र
2. मंदिर 
3. मठ 
4.ग्राम
5. गोष्ठी और परिषद


गोष्ठी का अर्थ है विशिष्ट विद्वानों के मित्र समूह द्वारा की जाने वाली परिचचएिँ तथा परिषद का अर्थ है-. गंभीर संस्था।


अग्रहार ग्राम उन्हें कहते थे जहाँ राजा विद्वानों को बसाते थे और उनके निर्वाह की व्यवस्था करते थे ताकि वे ग्राम को शिक्षा का केंद्र बना सकें।

बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र

1. नालंदा

यह वर्तमान बिहार राज्य में पटना के दक्षिण-पूर्व में स्थित है।

नालंदा विशेष रूप से महायान शाखा की शिक्षा का केंद्र था। लेकिन यहाँ हीनयान बौद्ध धर्म की शाखा के साथ अन्य धर्मो की शिक्षा भी दी जाती थी।

यहाँ पर लगभग दस हजार विद्यार्थी अध्ययनरत थे। शिक्षकों की संख्या पंद्रह सौ के लगभग थी।

इस पर प्रथम हमला हूण शासक मिहिरकुल के द्वारा किया गया। इसके पश्चात् 1199 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जलाकर पूरी तरह नष्ट कर दिया।

2. वल्लभी

वल्लभी मैत्रक राजाओं की राजधानी (475-775 ई.) थी।
हवेनसांग के अनुसार वल्लभी में हीनयान सम्प्रदाय के शिक्षक अधिक थे, परन्तु महायानी शिक्षा भी अवश्य दी जाती होगी क्योंकि इसके छात्र भी प्रशासकीय सेवाओं में जाते था

3. विक्रमशिला

राजा धर्मपाल द्वारा उत्तरी मगध में यह केन्द्र स्थापित किया गया था।

दीपंकर तथा अभ्यंकर गुप्त विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे।

ओदंतपुरी - पाल राजाओं ने ओदंतपुरी के शिक्षा केंद्र का विकास किया था।

काशी- ब्राह्मण शिक्षा केंद्र के साथ काशी बौद्ध शिक्षा का भी महत्वपूर्ण केंद्र था। बुद्ध ने सर्वप्रथम अपना धर्म प्रचार यहीं किया था।


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