वेद, पुराण, उपनिषदों का संक्षिप्त परिचय।
वेद, पुराण, उपनिषदों का संक्षिप्त परिचय।
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वैदिक साहित्य :-
वेद-मंत्रों को कंठस्थ करने की परंपरा को सनातन माना जाता है इसलिए इन्हें श्रुति कहा गया है। कुल चार वेद हैं, लेकिन कौटिल्य ने इन्हें त्रिवेद ही माना है जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद शामिल हैं, लेकिन बाद में अथर्ववेद और इतिहासवेद को इनमें मिला दिया गया और इन सबको वेद कहा गया। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ज्ञान की संप्रेषणशीलता को ध्यान में रखकर वेदों का विभाजन किया गया है अर्थात् पद्य का तात्पर्य 'ऋक' से है, इसलिए इससे संबंधित संहिता 'ऋकसंहिता' या 'ऋग्वेद' हुयी; गद्य का तात्पर्य 'यजुष' से है और इसका वेद 'यजुर्वेद' हुआ जबकि छंद का तात्पर्य 'साम' से है इसलिए 'सामों' का संकलन 'सामवेद' हुआ। ज्ञान प्राप्त करने की इन्हीं तीन धाराओं से वेदत्रयी की अवधारणा बनी, लेकिन बाद में इसमें अर्थवेद को भी जोड़ दिया गया।
ऋग्वेद
संपूर्ण ऋग्वेद संहिता को दस मंडलों में विभक्त किया गया है। पहले तथा दसवें मंडलों में छोटे वंशों की रचनाएँ हैं। इनमें आठवाँ, नवाँ और दसवाँ मंडल स्तुतिपरक काव्य की नवीनतम सामग्री का वर्णन करते हैं। दूसरे मंडल से लेकर सातवें मंडल तक को वंश अथवा आरंभिक मंडल माना जाता है जिनकी रचना क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वशिष्ठ गोत्र के सदस्यों ने की है। आठवाँ मंडल कण्व और अंगिरस गोत्रों के सदस्यों द्वारा रचित है जबकि नयाँ मंडल सोम मंत्रों से संपन्न है। इसके अतिरिक्त वैवस्वत मनु, शिवि, औशीनर, प्रतर्वन, मधुछन्दा, देवापि, लोपामुद्रा.... आदि ऋग्वेद के संकलन से जुड़े हैं।
ऋग्वेद से संबंधित प्रमुख तथ्य
ऋग्वेद भारत की ही नहीं संपूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है। संभवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदेश में हुयी थी। ऋग्वेद और ईरानी ग्रंथ जेंद अवेस्ता समानता पाई जाती है। ऋग्वेद के अधिकांश भाग में देवताओं की स्तुतिपरक ऋचाएँ हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है, फिर भी इसके कुछ मंत्र ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध कराते हैं। जैसे दाशराज्ञ युद्ध' का वर्णन। इसमें भरत जन के नेता सुदास के मुख्य पुरोहित वसिष्ठ थे, जब कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के पुरोहित विश्वामित्र थे। दस जनों के संघ में-पाँच जनों के अतिरिक्त अलिन, पक्थ, भलनसु शिवि तथा विषाणिन के राजा सम्मिलित थे।
भरत त्रित्सु जन के थे, जिसके प्रतिनिधि दिवोदास एवं सुदास थे। ऋग्वेद में, यदु, द्रुह्यु तुर्वश, पुरू और अनु पाँच जनों का वर्णन मिलता है।
शाखाएँ - शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और मांड्कायन।
विभाजन-मंडल, अनुवाक, सूक्त और मंत्र। अथवा अष्टक, अध्याय, वर्ग और मंत्र में। पूरे ऋग्वेद को आठ समान भागों में बाँटा गया है, इन्हें अष्टक कहते हैं। प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं, अतः पूरे ऋग्वेद में 88 64 अध्याय हुए। इस प्रकार इसमें 8 अष्टक, 64 अध्याय, 2024 वर्ग और 10,552 (एक वर्ग में पाँच मंत्र हैं) मंत्र हैं।
ऋषि और देवता के अनुसार ऋग्वेद को दस मंडलों में विभक्त किया गया है। इसमें 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मंत्र हैं।
दशवें मंडल में पुरुषसूक्त है जिसमें पहली बार चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त नासदीय सूक्त (सृष्टि विषयक जानकारी, निर्गुण ब्रह्म की जानकारी), विवाह सूक्त (ऋषि दीर्घतमा द्वारा रचित) नदी सूक्त (वर्णित सबसे अंतिम नदी गोमल), देवी सूक्त आदि का वर्णन इसी मंडल में है। सोम का उल्लेख नवें मंडल में है। गायत्री मंत्र (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद के 7वें मंडल में किया गया है, यह वरुण को समर्पित है। ऋग्वेद के आठवें मंडल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को 'खिल' कहा गया है।
यजुर्वेद
यजुर्वेद का तात्पर्य यजुष के वेद यानि गद्य अथवा यज्ञ के वेद से है।
यह मूलतः कर्मकांड ग्रंथ है। इसकी रचना कुरुक्षेत्र में मानी जाती है।
इससे पता चलता है कि आर्य सप्त सैंधव से आगे बढ़ गए थे और वे प्रकृति पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। इसका पुरोहित अध्व॒र्य है। यजुर्वेद का अंतिम अध्याय ईशावास्य उपनिषद है, जो आदिम माना जाता है, क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद संहिता का भाग नहीं है।
इस वेद के दो मुख्य भाग हैं-शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। शुक्ल यजुर्वेद वर्श और पूर्णमास अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन है।
इसकी मुख्य शाखाएँ हैं-माध्यन्दिन और काण्व। इसकी संहिता को वाजसनेय भी कहा गया है, क्योंकि वाजसनि के पुत्र याज्ञवल्क्य वाजसनेय इसके दृष्टा थे।
कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ तत्रियोजक ब्राह्मणों का भी मिश्रण है। इसकी मुख्य शाखायें हैं-तैत्तिरीय (आपस्तंब संहिता), मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल। यजुर्वेद से संबद्ध उपनिषद श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, ईश, प्रश्न, मुंडक।
सामवेद
साम का अर्थ है-छंद जिसके माध्यम से मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता है। सामवेद में कुल 1875 ऋचाएँ हैं जिनमें 75 के अतिरिक्त ऋग्वेद से ली गयी हैं। इसमें 1549 या 1810 मंत्र (जिनमें से 1734 ऋग्वेद से) हैं, जिन्हें सोमयज्ञ के समय 'उद्गाता' ब्राह्मण पुरोहित गाते थे।
पुराणों के अनुसार सामवेद की 1000 सहिताएँ हैं, लेकिन इनमें से केवल तीन ही उपलब्ध हैं-कौथुम, राणायनीय और जैमिनीय। इनमें से कौथुम अथवा कौथुमस की संहिता सबसे अधिक प्रसिद्ध है। सामवेद संहिता के दो भाग हैं-आर्थिक और उत्तरार्षिक। देवता विषयक विवेचन की दृष्टि से सामवेद का प्रमुख देवता सविता या सूर्य है. इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं, किंतु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है। सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनी को माना जाता है।
अथर्ववेद
अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना सबसे बाद में हुई। यह दैनिक जीवन से जुड़े तांत्रिक धार्मिक सरोकारों को व्यक्त करता है। इसकी रचना अथर्वर्ण तथा आंगिरस ऋषियों द्वारा की गयी है। इसीलिए अथर्ववेद को अथर्वागिरस वेबेद भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद को अन्य नामों से भी जाना जाता है-गोपथ ब्राह्मण में इसे अथर्वागिरस वेद कहा गया है।
ब्रह्म विषय होने के कारण इसे ब्रह्मवेद तथा आयुर्वेद, चिकित्सा, औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण भैषज्य वेद कहा जाता है। पृथ्वीसूक्त इस वेद का अति महत्त्वपूर्ण सूक्त है। इस कारण इसे महीवेद भी कहा जाता है।
इस वेद के प्रमुख विषय हैं-ब्रह्मज्ञान, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, जंत्र-तंत्र, टोना टोटका आदि। अथर्ववेद में सर्वाधिक उल्लेखनीय विषय आयुर्विज्ञान है। इसके अतिरिक्त जीवाणु विज्ञान तथा औषधियों आदि के विषय में जानकारी इसी वेद से होती है। भूमि सूक्त के द्वारा राष्ट्रीय भावना का सुद्दढ़ प्रतिपादन सर्वप्रथम इसी वेद में हुआ है। इसकी दो शाखाएँ हैं- पिप्पलाद और शौनक।
ब्राह्मण साहित्य
ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है-यज्ञ। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ब्राह्मण साहित्य की रचना यज्ञों के
विषय को अच्छी तरह से प्रतिपादित करने के लिए की गयी। ब्राह्मण ग्रंथों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं।
वेद और संबधित ब्राह्मण
1. ऋग्वेद : ऐतरेय ब्राह्मण, शांखायन या कौषीतकी ब्राह्मण।
2. यजुर्वेद : शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण।
3. सामवेद : पंचविंश या ताण्ड्य ब्राह्मण, पडविंश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण।
4.अथर्ववेद : गोपथ ब्राह्मण।
उपनिषद
उपनिषदों की रचना संभवतः 1000 से 300 ई.पू. में हुयी। चूंकि ये वेदों के अंतिम भाग हैं इसलिए इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल संख्या 108 है, लेकिन उपलब्ध संख्या 10 है, जो इस प्रकार हैं-ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकी, मुंडक, प्रश्न, मैत्रायणीय आदि। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में है।
वेद एवं संबंधित उपनिषद
1. ऋग्वेद : ऐतरेय उपनिषद।
2. यजुर्वेद : बृहदारण्यक उपनिषद।
3. शुक्ल यजुर्वेद : ईशावास्य उपनिषद।
4. कृष्ण यजुर्वेद : तैत्तिरीय उपनिषद, कठ उपनिषद, श्वेताश्वर उपनिषद, मैत्रायणी उपनिषद।
5. सामवेद : वाष्कल उपनिषद, छांदोग्य उपनिषद, केन उपनिषद।
6.अथर्ववेद : मांडूक्य उपनिषद, प्रश्न उपनिषद, मुंडक उपनिषद।
वेद और उनके उपनिषदों की संख्या
1. ऋग्वेद : कुल उपनिषद 10
2. शुक्ल यजुर्वेद : कुल उपनिषद 19
3. कृष्ण यजुर्वेद : : कुल उपनिषद 32
4. सामवेद : कुल उपनिषद 16
5. अथर्ववेद : कुल उपनिषद 31
वेदांग
वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा कि सी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले।' इनकी संख्या 6 है, जो इस प्रकार है- शिक्षा- 'शिक्षा' के द्वारा वेदमंत्रों का उच्चारण या वैदिक वाक्यों स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा संबंधी प्राचीनतम साहित्य प्रातिशाख्य है।
कल्प 'कल्प' दूसरा वेदांग है जिसमें वेद निहित कर्मों की विधि-पूर्वक व्यवस्था की गयी है। विविध विधानों को सूक्ष्म आकार में प्रस्तुत करने के लिए 'कल्प-सूत्रों' का निर्माण हुआ जिनकी संख्या चार है- श्रौतसूत्र, गृह्ययसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्व सूत्र। 'श्रौतसूत्र' का संबंध याज्ञिक विश्वास, गृह्ययसूत्र का विविध संस्कार धर्मसूत्र का संस्कार और दाय विभाजन और 'शुल्व सूत्र' को यज्ञ वेदी के निर्माण से है।
व्याकरण - व्याकरण का अर्थ है-पदों की मीमांसा करने वाला शास्त्र जिसे वेदपुरुष का मुख माना गया है। इसके अंतर्गत समासों एवं संधि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताए गए हैं। इसका आधारभूत ग्रंथ पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' है।
निरुक्त - शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन का ज्ञान देने वाला शास्त्र निरूक्त है। 'व्याकरण' से शब्द का लक्षण ज्ञात होता है, जबकि 'निरुक्त' के द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है। इस दृष्टि से 'निरुक्त' 'व्याकरण' का पूरक है। इसे 'भाषा-विज्ञान' के नाम से भी जाना जाता है। क्लिष्ट शब्दों के संकलन निघण्टु की व्याख्या हेतु यास्क ने निरुक्त की रचना की।
छंद वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छंदशास्त्र प्रसिद्ध है।
ज्योतिष - इसका कार्य नक्षत्र, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु आदि के यज्ञ हेतु चयन का था। इसकें प्राचीनतम आचार्य लगध मुनि हैं। नारद, पराशर, वशिष्ठ आदि ऋषियों के ग्रंथों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट्ट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रंथ प्रख्यात हैं।
उपवेद
उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अंतर्गत हों। ये वेदों से ही उद्भूत हैं और उन्हीं पर आश्रित भी: जैसे-
धनुर्वेद-इसे विश्वामित्र ने यजुर्वेद से निकला।
गन्धर्ववेद-इसे भरतमुनि ने सामवेद से निकाला।
आयुर्वेद-इसे धन्वंतरि ने ऋग्वेद से निकाला। स्थापत्य वेद-इसे विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से निकला था।
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